सृष्टी नि मानव! सूर्य म्हणेल माझा धर्म... विश्वाला प्रकाशमय करणे! चंद्र म्हणेल माझा धर्म... रमणीय शीतलता देणे! हवा म्हणेल माझा धर्म... जगणाऱ्यांस प्राणवायू देणे! जल म्हणेल माझा धर्म... प्राणिमात्रांची तहान भागवणे! झाड म्हणेल माझा धर्म.. फुल, फळ, सावली देणे! मानव इथे काय म्हणेल...? उमगले की सांगेन म्हणतो! - मनोज 'मानस रूमानी'
खिले गुल-हा-ए-दिल! वहां असल में जीवन हैं.. कथित आधुनिक शहरों से दूर.. मानवता खोयी हुई भीड़ से दूर! सृष्टि की आग़ोश में.. खुली हवा में,..हरियाली से गुज़रते खिलतें फूलों में..उनकी महक लेते! पतझड़ में जो गुम हुएं.. वे हसीन पल..ढूँढ़ते वहां जाकर आए अब यह बसंत..लेकर बहार! - मनोज 'मानस रूमानी'
🌹 💗 गुलाब कभी जो दिया था तुझे.. कुछ वक़्त तुमने संभाला होगा! मिलने की गुंजाइश ना देखके.. फिर हाथ किसी का थामा होगा! गुलाब फिर ना दिया किसे मैंने; दिल तुमने भी पास रखा होगा! - मनोज 'मानस रूमानी'