खिले गुल-हा-ए-दिल!


वहां असल में जीवन हैं..
कथित आधुनिक शहरों से दूर..
मानवता खोयी हुई भीड़ से दूर!

सृष्टि की आग़ोश में..
खुली हवा में,..हरियाली से गुज़रते
खिलतें फूलों में..उनकी महक लेते!

पतझड़ में जो गुम हुएं..
वे हसीन पल..ढूँढ़ते वहां जाकर
आए अब यह बसंत..लेकर बहार!

- मनोज 'मानस रूमानी'

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