हल खींचकर, पसीना बहाकर
धरती से जो सोना उगाता है
किसान वो बेदख़ल हो गया
इस पूँजीवादी सियासत से!

- मनोज 'मानस रूमानी'

(मनोजकुमारजी की 'उपकार' की प्रतिमा याद आयी और यह लिखा!)

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