मुख़्तलिफ़ बादलों से गुजरते..
जैसे दीदार-ए-चाँद होता रहता!

आजकल कई चिलमनों से आते..
वह रुख़-ए-महताब भी हैं दिखता!


- मनोज 'मानस रूमानी'

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