वो भीगे रूमानी लम्हें!


बादलों की गड़गड़ाहट से
फिर जोर से बरसी बरखा
भीगी हुई अँधेरी रात में
था बिजली का चमकना


फिर हिला गया मौसम ये
मन खोये अतीत में पहुँचा
हसीं पल वो देखतें देखतें
बस उसे याद करता रहा..


याद आएँ वो भीगे लम्हे
बरखा का लुत्फ़ उठाना
साथ साथ घूमते फिरतें
आँखों से प्यार झलकना


काश हम फिर वहाँ पहुँचते
समां भी हो रूमानी सुहाना
बरख़ा यूँ ख़ूब बरसती रहें
आँखों से रहें प्यार झलकता


गरजतें बादलों की आवाज़ से
यूँ हो डरके उसका लिपटना
बिजली भी तब ऐसी चमके
होठों का हो गाल पर ठहरना!


- मनोज 'मानस रूमानी'


(अब हुई बरसात में मैंने इसे लिखा हैं। साथ में अलग पूरक छायाचित्र है!)

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