मुंतज़िर!


तअस्सुफ़ हैं नासमझी में छूटी..
हमनफ़स जो हो जाती हमसफ़र
रहगुज़र सही..मंज़िल की तरफ!

फिर दिखें वो नूऱ..राह मंज़िल की
फ़स्ल-ए-गुल के इंतज़ार में अब..
दश्त-ए-तन्हाई में पड़े हैं 'मानस'!

- मनोज 'मानस रूमानी'

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