अपने वतन को आज़ादी मिलकर तो लंबा अरसा बिता। लेकिन क्या व्यक्तिगत स्तर पर आज़ाद हैं हम? इसपर मैंने यह नज़्म लिखी हैं।

क्या हैं आज़ाद हम?

आज़ाद मुल्क के बाशिंदे हम..
अपनों से क्या आज़ाद हैं हम?

बलवानों की हैं हुकूमत
समाज में हो या घर
कितने पाते हैं बोल
कितने ले सकते हक़
आज़ाद मुल्क के बाशिंदे हम..

जात-धर्म से हैं पहचान
कोई न समझते इंसान
हैं बटें हुए यहाँ सब
जी चाहे रंग के साथ
आज़ाद मुल्क के बाशिंदे हम..

चुनाव में आपका मत
फिर कौन पूछता मत
पाने को अपना वजूद
कर रहें यहाँ संघर्ष..
आज़ाद मुल्क के बाशिंदे हम..

गरीब अभी भी हैं गरीब
धन से बढ़ता है अमीर
मुश्किल से लेते है पढ़
फिर जारी काम तलाश
आज़ाद मुल्क के बाशिंदे हम..

अभी भी जाते हैं कुचल
निर्धन, अबला, असहाय
कौन सुने इनकी आवाज़
सबको बस अपनी सोच
आज़ाद मुल्क के बाशिंदे हम..

क्या वो दिन आएगा 'मानस'
सबकी सुनी जाएगी आवाज़
सब को मिलेगा अपना हक़
मानेंगे सब तिरंगा ही ध्वज
आज़ाद मुल्क के बाशिंदे हम..

- मनोज 'मानस रूमानी'

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