आदाब अर्ज़ हैं!
अपने वतन को आज़ादी मिलने पर भी, बटवारे से जुदा होने का दुख और फिर एक होने की आशा इस पर मैंने यह तरक़्क़ीपसंद नज़्म लिखी हैं..
एक थे..फिर होंगे?!
जाते जाते टुकड़े कर गए अंग्रेज़
वतन पर अपने खींचकर लकीर
बटवारे की याद दिलाए यह दिन!
कर गयी लकीर बड़ा ज़ख्म
इस धरती माँ के सीने पर..
करके जुदा उसके दो लाल!
अपनों में झगड़ा लगाई लकीर
बुनियादी समस्या की हुई जड़
फिरंगी चाल यूँ हो गई सफल!
शक्ल-सूरत से जो हैं एक
रहन-सहन, संस्कृति एक
तो फिर रहें क्यूँ ये अलग?
यूरोप जहाँ अब हुआ एक
और भी कर रहें हैं पहल..
हम फिर क्यूँ न होंगे एक?
- मनोज 'मानस रूमानी'
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